जिसे हम
पहले तो जन्म ही नहीं लेने देते थे,
गलती से जनम गयी तो
असम्मानित स्वागत से
कुचल देते थे
जनम लेने वाली को ही नहीं
देने वाली को भी,
फिर लगाते थे पहरे,
बचपन से लेकर युवा तक,
कभी घरके,
कभी बहार के,
और कभी अपने से छोटों के भी,
जब तुमसे नहीं होती
हमारी तथाकथित हिफाज़त,
तो जड़ से उखाड़कर सौप देते हो
किसी अंगरक्षक को
संपूर्ण अधिकारों के साथ ,
और वो उसे
न घूँघट से निकलने देता है,
न परदे से ,
झाकने भी नहीं देता है खिडकियों से
न जाने कौन से डर से,
....
बदलाव की बाते तो बहुत करते हो,
करते क्या हो ?
यदि करते तो,
यहाँ भी,
वहां भी ,
परायों में भी,
अपनों में भी ,
नहीं होता
दिन प्रतिदिन बलात्कार ,
और ,
ना ही होता
ना ही होता
शर्मिंदगी भरा अपमान,
हमने समझ लिया,
अबला रहकर
अब कुछ नहीं हो सकता,
हमें ही
उठ खड़ा होना होगा,
तोड़ने होंगे सारे तिलस्म,
सारी वर्जनाये,
ऐसे ही नहीं
सांप लपेटकर
लिपट गयी थी मै
उस तथाकथित अंगरक्षक से
निर्वस्त्र,
तुम चीखते रहे,
चिल्लाते रहे,
चीखे तुम तब भी थे,
जब
जानबूझकर गिरा दी थी मैंने
फैशन की पोशाक
सरेआम,
वो प्रतिकार था
तुमसे,
तुमसे,
तुम्हारी सोच से,
अब मुझे परम्पराओं का नहीं रहा डर,
मूल्यों की भी नहीं कोई परवाह,
डूब जाये कितने ही मूल्य,
तुमने कौन सी
धार्मिकता का निर्वाह किया ,
हमारे अस्तित्व को नकारकर,
हमें अबला नाम देकर
कितना खुश होते हो तुम ,
सदियों से,
सारी परम्पराए,
सारे मूल्य,
सारे संस्कार ,
और न जाने कौन-कौन सी रेखाएं
हमारे लिए ही क्यों खीची है तुमने ,
शास्त्रों में भी,
पुराणों में भी,
उपनिषदों में भी,
और जब चाहते हो बना देते हो
एक नया दायरा,
हमारे शरीर को कैनवास समझकर ,
और चाहते हो
हम उस दायरे को समझें
न चाहते हुए भी,
सोचकर देखो,
कैसा लगता है,
जब कोई दायरा तोड़कर
तुम्हारी दुखती रग छेड़ता है,
तुम्हे कर देता है हवाले
धर्म भीरुओं के,
जो करते है तुमसे तरह तरह के सवाल ,
परम्पराओं के,
मूल्यों के ,
धरोहर के,
मूल्य जो तुमने बनाये थे,
तुम्ही निबाहो ,
..............
..............
यदि चाहते हो
तुम्हे कोई दुःख न हो
तो सोच बदलो,
कुछ वर्जनाये तुम भी जानो,
अपने लिए भी खीचो
लक्ष्मणरेखा,
हमें देर नहीं लगती सीता बननें में
तुम राम न सही
परशु - राम ही बन जाओ,
और सही अर्थों में
हमारे लिए
परशु उठाओ .
-कुश्वंश
यह सब मुद्दे विचारणीय है| अच्छा सन्देश देती हुई रचना, बधाई....
जवाब देंहटाएंयदि चाहते हो
जवाब देंहटाएंतुम्हे कोई दुःख न हो
तो सोच बदलो,
कुछ वर्जनाये तुम भी जानो,
अपने लिए भी खीचो
लक्ष्मणरेखा,
बहुत सुंदर..... विचारोत्तेजक रचना
— मेरी जिह्वा परशु का काम करेगी —
जवाब देंहटाएं___________________________
है आर्य सभ्यता अपनी बहुत सनातन
वैदिक संस्कृति की बनी हुई वह साथन
जिसमें नारी को पूरा मान मिला है
जननी देवी माता स्थान मिला है
पर वही आज माता बन गयी कुमाता
कामुकता से भर गयी काम से नाता।
है अंगों की अब सेल लगाया करती
फिल्मों में जाकर अंग दिखाया करती
ईश्वर प्रदत्त सुन्दर राशी का अपने
वह भोग लगाकर, खाना खाया करती।
क्या लज्जा की परिभाषा बदल गयी है?
क्या अवगुंठन की भाषा बदल गयी है?
या बदल गयी है इस भारत की नारी?
या सबने ही लज्जा शरीर से तारी?
अब सार्वजनिक हो रही काम की ज्वाला
हैं झुलस रही जिसमें कलियों सी बाला
अब बचपन में ही निर्लज्ज हो जाती है।
अपने अंगों के गीत स्वयं गाती है।
हे परशुराम! कब तलक चलेगा ऐसा?
क्या आयेगा अब नहीं तुम्हारे जैसा?
जिसमें निर्लज्ज नारी वध की क्षमता हो
हो बहन किवा बेटी पत्नी माता हो।
मैं बहुत समय पहले जब था शरमाता
जब साड़ी पहना करती भारत माता
माँ की गोदी में जाकर ममता पाता
पर आज उसी से मैं बचता कतराता
क्योंकि माँ ने परिधान बदल लिया है
साड़ी के बदले स्कर्ट पहन लिया है
है भूल गयी मेरी माता मर्यादा
भारत में पच्छिम का प्रभाव है ज्य़ादा।
है परशुराम से पायी मैंने शिक्षा।
इसलिए मात्र-वध की होती है इच्छा।
जब-जब माता जमदग्नी-पूत छ्लेगी
मेरी जिह्वा परशु का काम करेगी।
ये चकाचौंध चलचित्रों की सब सज्जा
देखी, नारी खुद लुटा रही है लज्जा
क्या पतन देख यह, मुक्ख फेर लूँ अपना
या मानूँ इसको बस मैं मिथ्या सपना।
सभ्यता सनातन मरे किवा जीवे वे
गांजा अफीम मदिरा चाहे पीवे वे
या पड़ी रहे 'चंचल' के छल गानों में
वैष्णों देवी भैरव के मयखानों में?
या ओशो के कामुक-दर्शन में छिपकर
कोठों पर जाने दूँ पाने को ईश्वर?
या करने दूँ पूजा केवल पत्थर की?
छोटी होने दूँ सत्ता मैं ईश्वर की?
क्या मापदंड नारी को उसका मानूँ
सभ्यता सनातन यानी नंगी जानूँ
चुपचाप देखता रहूँ किवा परिवर्तन
आँखों पर पर्दा डाल नग्नता नर्तन।
क्या धर्म व्याज पाखण्ड सभी होने दूँ?
भगवती जागरण वालों को सोने दूँ?
क्या सम्प्रदाय को धर्म रूप लेने दूँ?
यानी पंथों के अण्डों को सेने दूँ?
जब पंथ और भी निकलेंगे अण्डों से
औ' जाने जावेंगे अपने झंडों से
प्रत्येक पंथ का धर्म अलग होवेगा
तब धर्म स्वयं अपना स्वरुप खोवेगा।
"है धर्म नाम दश गुण धारण करने का।
है मार्ग उन्नति का सबसे जुड़ने का।
है धर्म वही कर सके प्रजा जो धारण।
जैसे सत्यम अस्तेय धृति क्षमा दम।
है धर्म नहीं बतलाता चोटी रखना।
यज्ञोपवीत गलमुच्छ जटायें रखना।
कच्छा कृपाण कंघा केशों को रखना।
कर-कड़ा, गुरुद्वारे में अमृत चखना।
प्रेरणा मिले इनसे तो बात भली है।
हैं धर्म अंग, वरना यह रूप छली है।
जो लिए हुए आधार वही अच्छा है।
बस धर्म सनातन वैदिक निज सच्चा है।"
यदि चाहते हो
जवाब देंहटाएंतुम्हे कोई दुःख न हो
तो सोच बदलो,
कुछ वर्जनाये तुम भी जानो,
अपने लिए भी खीचो
लक्ष्मणरेखा,... sau pratishat sahi kaha, adwitiye
शारीरक बलातकर्म.......... सौन्दर्यबोध के संकुचन पर उपजता है. इसलिये बालक को बचपन से ही प्रकृति से प्रेम करना सिखाना चाहिए..
जवाब देंहटाएंउसे भक्ति में भी फूल के तोड़ने की बजाय फूल को चुनने की शिक्षा देनी चाहिए ... धीरे-धीरे उसमें सौन्दर्य के प्रति हिंसक भाव जन्म नहीं लेंगे.
हिंसक भाव मतलब सौन्दर्य को समेटने का भाव..
सौन्दर्य को समेटने पर सौन्दर्य नष्ट हो जाता है...
सौन्दर्य को भी चाहिए वह अपना विस्तार करे, अपना विकास करे किन्तु वह न करे कि दर्शक दीर्घा के लोग उसे निहारने के लिये अपनी आँखों में कैद करने को उत्सुक हो जाएँ.
बहुत सशक्त रचना है ..
जवाब देंहटाएंलेकिन क्या वर्जनाएं तोड़ कर ही नारी अपना स्थान बना सकती है ? मना कि पुरुषों ने नारी को दायरे में बंधा है सारी सीमायें तय कि हैं पर उन बाधाओं को पार करने के लिए लज्जा को त्याग कर स्वयं को स्थापित करना क्या उचित होगा ?
यदि नारी को सबल बनना है तो राम या परशुराम का सहारा क्यों ? वो खुद भी खड्ड उठा सकती है ...
वाह, बन्धु,सुंदर भावनाएं सुंदर ब्लॉग पर ,मोहित सा हो गया ,आपकी कविताओं और चिंतन पर /बहुत अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आ कर,
जवाब देंहटाएंस्वागत भी,अभिनन्दन भी /
डॉ.भूपेन्द्र
रीवा एम् पी
वाह्………बेहद सशक्त और नयी सोच को प्रस्तुत करती कविता के लिये बधाई स्वीकारें।
जवाब देंहटाएंसुन्दर नये प्रतीकों वाली सुन्दर रचना । बधाई ।
जवाब देंहटाएंसभी विद्वान् ब्लोगरों का आभार, मैंने प्रतीकों के जरिये बात उठाई थी, जब कोई रास्ता न रहे तो प्रतिकार की बात भी होती ही है भले ही वो संस्कारों के विपरीत होती है, हम ऐसे देश के है जहाँ संस्कार हमारी रग रग में समाये है और हमें उन्हें छोड़ना भी नहीं है, किसी भी परिस्थिति में नहीं, पश्चिम में प्रतिकार एक तरीका हो सकता है मगर सूर्य तो पूरब से निकलता है , प्रतुल जी आप की बात से अक्षरसः: शहमत हूँ , संगीता जी आप ने ठीक ही कहा हमें किसी की जरूरत नहीं, जरूरत है तो स्वयं के उठ खड़े होने की और हम कामना भी यही करते है .. एक बार फिर आप सभी का आभार..
जवाब देंहटाएंयहाँ भी,
जवाब देंहटाएंवहां भी ,
परायों में भी,
अपनों में भी ,
नहीं होता
दिन प्रतिदिन बलात्कार ,
और ,
ना ही होता
शर्मिंदगी भरा अपमान...
बहुत मार्मिक और समसामयिक रचना...आज लडकी घर में भी सुरक्षित नहीं है और शर्म आती है जब यह पढते हैं कि जिन पर वह विश्वास करती है और उनसे सुरक्षा की आशा करती है वही उसकी इज्ज़त से खिलवाड़ करने से नहीं चूकते. कुछ ही दिन पहले एक लडकी को अपने ५७ वर्ष के पिता का क़त्ल करने को मज़बूर होना पड़ा जब उसने उसके साथ बलात्कार करना चाहा. कहाँ जा रही है हमारी मानसिकता? सोच कर भी घृणा होने लगती है इन हालात से.
आज स्त्री को स्वयं सशक्त होना होगा और उसको याद करना होगा कि उसके अंदर दुर्गा का भी अंश है. इस प्रयास में हम सभी को उसका साथ देना होगा.
बहुत सशक्त रूप में इस समस्या की ओर ध्यान आकर्षित किया है.रचना हमारे चिंतन के पूरी तरह झकझोर देती है. बधाई इस सुन्दर और सशक्त प्रस्तुति के लिये.