बौउआ ई दलित
का होत है,
कौनो
डाकू-वाकू है का,
जौन नेताजी कहत रहन,
अब दलित,
दलित ना रही कोई,
हम भूंख से कल्लाय रहे हन,
हमरा घर
धार मार के चुअत है बारिश मा,
ढोर,
दूधई बंद कर दिए बिना चारा,
ई सवाद का कौन कहै
पियाज का एक गांठ तौ नसीब नाहीं,
खाई का.
भुनवा आलू ... वाह...
का बात है,
मिलिजाय तो हम
दलित खोजाय देब
सरकार की खातिर,
इंदिरा आवास हम नाही जानत
बस
कछु फूस मिलि जाय
तौ ई टपर-टपर तौ बंद होय,
बाकी सब बड़े मजे मा है हम,
स्कूल तौ हमार बिटवा
जावई ना चाहत,
दुपहर मै खाई के खातिर जात रहा
मार के भगाय दिहिन ओहका,
अब भैसी की पीठी पै बैठाई कै
ओकरा सपना पूरा कर देइत है,
हमे का चाही
कछु नाही ....
बस एक पौआ,
रम्कलिया
और रात कै नीद .....
-कुश्वंश
सार्थक कविता. दलित को दलित चिंतन से क्या सारोकार. उसे तो उसकी समस्याओं से निजात चाहिए. लफ्फाजी से क्या मिलेगा उसे?
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक रचना..
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