महेश कुशवंश

4 मार्च 2011

मन है













अपने दिल की  

बात कहू
कुछ तुम्हे बताऊँ.
इधर-उधर की
बात न कर मै
सीधे आऊं,
तुमको कुछ  
छूने का का मन है.
चोरी-चोरी
छिपके-चुपके,
सपनें भी देखे  
डर-डर के,
रेशम सी
मखमली छुवन भी
बंद आँख
महसूस करूँ.
गिरती-उठती
पलकों के
आमंत्रण की
पहचान करूँ.
अंतर्मन में
बरस  रहा जो
नेह निमंत्रण. 
झरती निर्मल  बूंदों में
बहक रहा 
स्वप्निल आलिंगन.
आज हवाओ
सा करीब
बहने का मन है. 
उमड़-घुमड़ती
केश घटाए,
भीगे-भीगे
ओस-बिंदु सा
चाँद छुपाये,
आज चांदनी धवल, 
सजल
होने का मन है.

तुमको अपना
बस अपना
कहने का मन है.
और पास,
कुछ और पास
जीने  का मन है,


-कुश्वंश

6 टिप्‍पणियां:

  1. तुमको अपना,
    बस अपना,
    कहने का मन है.
    सुंदर रचना , बधाई

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  2. भावपूर्ण कोमल कितनी मोहक प्रेमाभिव्यक्ति है...वाह...वाह...वाह...

    बहुत ही सुन्दर...बहुत ही प्यारी रचना...

    (कहीं कहीं टंकण त्रुटि रह गयी है...विशेषकर स के स्थान पर श टाईप हो गया है,कृपया सुधार लें)

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  3. तुमको अपना,
    बस अपना,
    कहने का मन है.

    मन के कोमल और प्रेमपगे भाव .....बहुत सुंदर

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  4. सुनील जी, रंजना जी एवं मोनिका जी , आपकी स्नेहिल उदगार हमारे लिए उत्प्रेरक है, इससे कलम और भी शशक्त होगी धन्यवाद

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  5. अति सुन्दर...मुग्ध करती रचना.

    जवाब देंहटाएं

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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