महेश कुशवंश

3 मार्च 2011

मेमने की जान

मै देख रहा हूँ
उस घर में इतना
सन्नाटा क्यों है
कल तक जहा
गूंजती थी किलकारिया
आसमानी ठहाके
आज सब मौन क्यों है
घर से पहले
वो लड़की निकली
उसमे आज वो
बात नहीं थी
जिसे मै उसे जाते हुए देखता था
फिर निकले उसके पिता
रोज की तरह
बस चाल लडखडा रही थी
पैर पड़ रहे थे इधर उधर
फिर निकला
वो लड़का
आज उसमे भी वो  दबंगई नहीं दिखी
रह गयी घर में
अकेली माँ
वो नहीं निकली
शाम को
घर में आते कोई नहीं दिखा
शायद देर रात आये होंगे
और जल्दी ही बंद हो गयी बत्ती
कई हफ्ते हो गए
न सुनायी दिए ठहाके
और न ही
फुसफुसाने की ही आवाज
और फिर
एक जीप रुकी
पुलिस की थी शायद
घर से फिर भी कोई नहीं निकला
बस जीप में
वो लड़की थी और उसकी अटैची
दरोगा जी और ड्राइवर के बीच में
लाल जोड़े में
दबी बैठी थी
दुसरे दिन
मोहल्ले में सुर्खिया थी
दरोगा को भा गयी थी वो
चौथी बीवी बनाने को
उसने उसके बाप पर
बेटी की कमाई खाने का पाप मढ़ा
भाई पर ड्रग्स माफिया का
और सबसे बचाने को मांगी थी
छोटी सी कीमत
एक मेमने की जान 
कोई  बचा सकता है उस मेमने को
कानून तो कदापि नहीं
वो तो उसकी जेब में है 
क्या आप ?
आपने जाना ही कहा 
क्या हुआ उस घर में ?
और मै 
मै तो जान कर भी
अपने गमले सीचता रहा 
बस देखता रहा उधर
मैंने क्या , किशी ने भी
मुड कर  नहीं देखा
मेमने की निरीह आँखों को
भेड़िये के खूनी दांतों को
क्या तुम देखोगे
उसे बाचाओगे तुम
..... काश बचाते

-कुश्वंश


6 टिप्‍पणियां:

  1. मार्मिक रचना, सत्यता की करीब .....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  2. .

    पढकर मन उदास हो गया । यदि दुनिया भर के भाई और पिता मज़बूत बन जाएँ तो स्त्रियों को बलि का बकरा नहीं बनना पड़ेगा । लेकिन अफ़सोस तो ये है की स्त्री अपने भाई , पिता , पुत्र और संतान की रक्षा के लिए सदियों से स्वयं को आहुत करती आई है ।

    मुझे अफ़सोस है उन मेमनों के लिए जिनकी खातिर एक स्त्री बिना उफ़ तक किये अपनी समस्त खुशियाँ और स्वप्न बलिदान कर देती है ।

    सत्य का आइना दिखाती इस उम्दा रचना के लिए बधाई ।

    .

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  3. मार्मिक ...एक सार्थक और सच को दिखाती रचना है..... बहुत सुंदर

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  4. कड़वी सच्चाई है इस कविता में, आपकी अभिव्यक्ति को नमन करता हूँ.

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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