महेश कुशवंश

9 मार्च 2011

मैं बेटा हूँ











मैं बेटा हूँ
मुझे क्यों कटघरे में
कर दिया खड़ा
जन्म के समय मेरी और
दीदी की किलकारियों में
अंतर था क्या ?
मुझे याद है
मुझसे कहा गया था
मेरे आने के लिए
दीदी की पीठ पर
फोड़ी गयी थे गुड की भेली
पहला दर्द तो वही था
दीदी का  
और जब मैं आया
हस्पताल के कोने के में
अपनी गुडिया के साथ खड़ी थी  दीदी
नाखून चबाती
सब मुझे घेरकर  खड़े थे
कुलदीपक आ गया
बिना नामकरण के हो गया था मेरा  नाम
मैंने तो नहीं कहा था
स्वयं को दीपक 
ना ही चाहा था  
दीदी रहे भूंखी  दिनभर
मैं स्कूल गया ,पढ़ा 
दीदी भी गयी
मगर मैं करता था रखवाली 
स्कूल में भी, 
सड़क पर भी
घर में भी और
घर के दरवाजे पर भी 
फिर हुयी शादी 
प्लाट बेचकर
लोग बोले बेटे के लिए कुछ नहीं छोड़ा 
मैंने कहाँ कहा ?
माँ ने बहलाया  
पूत-कपूत तो का धन संचय
पूत-सपूत तो का धन संचय
साल बीता
एक और प्लाट के चक्कर में
दीदी को घर छोड़ गए वापस घर में  
मैंने कहा कहा,
क्यों छोड़ गए
मेरी शादी में
पापा ने कुछ नहीं माँगा
उन्होंने दिया भी नहीं 
तो मेरा क्या दोष ? 
मै घर में रहना चाहता था
वो अपने घर चली गयी  
धमकी देकर 
बाहर रहो वर्ना नहीं आउंगी
मेरा कहाँ दोष ?
आज भी मै नौकरी  पर जाता हूँ 
अनमना सा वापस आता हूँ
माँ से मेरा दुःख नहीं देखा जाता 
वो कहती बेटा
जा बाहर रह
बहुत रह लिया घर
अपना घर बसा 
मुझे कुछ समझ नहीं आता
कैसे रहू, क्या करू
एक प्लाट बेचकर लिए फ्लैट में
मेरे साथ रहने आ जाती है वो
माँ-पिताजी वही रह गए
हजारों मील दूर
प्रकृति के साथ गाव में 
मै कहा दोषी हूँ ?
मैंने कहाँ कुछ किया ?
शायद  इतना ही की मैं बेटा हूँ
और मेरी कमाई
इतनी ही है की
इस बड़े शहर में पेट भर सकू
वो भी कहती है
किस भिखारी के साथ
बांधी गयी
रह गए सारे अरमान धरे के धरे    
सोचता हूँ 
अरमान किसके  रह गए धरे
दीदी के
माँ के
बाबूजी के
उसके या
मेरे 
तुम्ही बताओ.

-कुश्वंश

9 टिप्‍पणियां:

  1. सोचता हूँ
    अरमान किसके रह गए धरे
    दीदी के
    माँ के
    बाबूजी के
    उसके या
    मेरे
    तुम्ही बताओ. ...

    गहन अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति ...बधाई.

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  2. वो भी कहती है
    किस भिखारी के साथ
    बांधी गयी
    रह गए सारे अरमान धरे के धरे
    सोचता हूँ
    अरमान किसके रह गए धरे
    दीदी के
    माँ के
    बाबूजी के
    उसके या
    मेरे
    तुम्ही बताओ.
    मैं कहाँ से कौन सा दर्द का टुकड़ा उठाऊं , कहाँ से अपनी बात शुरू करूँ .... कुछ समझ में नहीं आ रहा है . ज़िन्दगी के पहिये घुमाता है कोई और , गुनहगार बन जाता है कोई और !

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  3. विडंबना है...प्रश्न झकझोर तो सकते हैं,पर समाधान नहीं पा सकते...

    इतने मर्मस्पर्शी और सार्थक ढंग से आपने बात राखी है कि क्या कहूँ...

    आपकी इस रचना के लिए प्रशंशा को शब्द नहीं ढूंढ पा रही...

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  4. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (10-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  5. .

    निष्कपट लोगों के अरमान अक्सर धरे के धरे रह जाते हैं , क्यूंकि वो दूसरों को सुखी देखना चाहते हैं, इसी में उनकी तमाम उम्र बीत जाती है । अपने अरमानों को पूरा करने का समय ही नहीं निकाल पाते।

    ऐसे सुशील एवं संवेदनशील 'बेटों' के लिए मेरे ह्रदय में अथाह सम्मान है।

    .

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  6. सोचता हूँ
    अरमान किसके रह गए धरे
    दीदी के
    माँ के
    बाबूजी के
    उसके या
    मेरे
    तुम्ही बताओ.

    यही तो विडम्बना है....मर्मस्पर्शी प्रस्तुति

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  7. सोचता हूँ
    अरमान किसके रह गए धरे
    दीदी के
    माँ के
    बाबूजी के
    उसके या
    मेरे
    तुम्ही बताओ.

    बेहद भावमय करते शब्‍द ..बहुत ही मार्मिक प्रस्‍तुति ...।

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  8. बहुत ही मार्मिक रचना है.
    बेटे को भी दर्द होता है ,कम ही लोग समझते हैं.
    सलाम.

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  9. और समाज ऐसे बेटों का दर्द नहीं समझ पाता ...यथार्थ को प्रस्तुत कर दिया है ...और सच यह भी है की सबके अपने अपने दर्द हैं ..

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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