आज एक माँ नहीं रही
बाबूजी गोद में रखे उस ठन्डे शरीर को
अपने से अलग नहीं करना चाहते थे
किसकी प्रतीक्षा थी
बेटे की तो नहीं थी
सात समुंदर पार से कैसे आता वो
क्रियाकर्म कर लेना
कह दिया था उसने
बाबूजी जानते थे उसकी मजबूरी
कभी दरवाजा देखते
और कभी बर्फ होती माँ को
उसी माँ को
जो बेटे के जाने पर
तीन दिन
भूख प्यास से तड़पती रही थी
मुई नौकरी
मार के ही दम लेगी
बेटा हाथ हिलाते उड़ गया था
...
लोग पूंछ रहे थे
ले चलें भाभी को
और वो कभी बेवफा हुयी माँ को देखते
और कभी सामने के दरवाजे को
मानो किसी का इंतज़ार हो
है तो उनकी
एक छुटकी भी
एक छुटकी भी
मगर वो भी तो है हजारो मील दूर
भारी मन से वो उसे
पञ्च तत्त्व में लीन कर आये
चली गयी पहले जो पहले जाने को
हमेशा कहती थी
हमेशा कहती थी
और इसी पहले मै-पहले मै पर
कई बार
बंद हो जाती थी बोल-चाल
शाम तक सब चले गए
वो भी
जो भाई बनके आये थे,
दूर तक साथ निभाने
जो भाई बनके आये थे,
दूर तक साथ निभाने
अचानक दरवाजे पर दिखी छुटकी
दौड़कर गोद में समां गयी
दौड़कर गोद में समां गयी
अविरल अश्रुधारा से भीग गए बाबूजी
ये भी नहीं कह पाए
क्या करूंगा
सारी रात
रोते रहे थे बाबूजी
छुटकी के बालों में हाथ फेरते
सुबह छुटकी सामान सामान बांध रही
सारी रात
रोते रहे थे बाबूजी
छुटकी के बालों में हाथ फेरते
सुबह छुटकी सामान सामान बांध रही
ये क्या कर रही है बेटी
क्या कर रही हूँ ?
सामान बांध रही हूँ आपका
अब नहीं रहने दूगी यहाँ
अम्मा को नहीं समझा पाई
उनको तो बेटी का नहीं खाना था
मूल्य चुकाकर भी नहीं
पानी भी तो साथ लाती थी खरीदकर
आप तो मुझे समझेंगे न,
बेटी क्यों माँ को रुसवा करोगी
यहाँ तो उसका गुनाहगार था ही
वहा भी हो जाऊगा ..
मुझे न ले चल
मैं तेरे साथ नहीं जाऊगा
छुटकी धम्म से बैठ गयी
..
आह !
आज तक नहीं हो पाई मैं
आपकी संतान, बेटे की तरह
एक जैसा पाकर जनम भी
क्यों बेटी ही रही ?
क्या मेरा हक़ नहीं तुम्हारे हक़ में
कहाँ की हूँ मैं
आपके घर में उगी
दूसरे घर में रोंपी गयी
कहाँ है मेरी जड़
पत्तियाँ और तना तो सूख जायेगा
जड़ नहीं होगी तो कितना चलेगा
मैं कहा जाऊगी
मेरी भी है दो बेटियां
बिना जड़ की
कौन सा ब्रम्हांड तलाशू
और वहां रोंप आऊ उन्हें
फलता हो पूरा पेड़ जहा, जड़ सहित
और जहा माँ और बाप
सिर्फ अम्मा और बाबूजी हो
इसके उसके नहीं
बुढापे की लाठी कोई एक न हो
ना ही हो
अपने ही पौधे को
भूलने की कोई मजबूरी
मिल जाए मुझे
शायद कोई और पृथ्वी
कहीं पर
कोई जमीन
कोई जमीन
-कुश्वंश
पहली बार आया हूँ ...मगर आपने, दिल जीत लिया यार ! बेहतरीन दिल पाए हो ...
जवाब देंहटाएंफिलहाल शुभकामनायें दे रहा हूँ ..
बेटी गर परायी है
जवाब देंहटाएंतो बेटा भी पराया है
दोनों की ज़िन्दगी में दो अलग घर के व्यक्ति आते हैं
फिर क्यूँ फर्क ! ये फर्क हमने बनाया है ... एक कदम बढ़ाना है, सारी दीवारें गिर जाएँगी , क्योंकि सच पूछें तो सब यही चाहते हैं
आप अपनी रचना संवेदना मर जाएगी और मेमना ... वटवृक्ष के लिए भेजिए परिचय तस्वीर ब्लॉग लिंक के साथ
जवाब देंहटाएंrasprabha@gmail.com पर
सतीश जी, आभारी हूँ आपका, रश्मि जी हमारी कविता यात्रा प्रारंभ हुई, आपकी सदासयता का आभारी रहूगा, आदेश का पालन कर रहा हूँ, कविताये मेल कर रहा हूँ .
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर भावुक प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरती से एक बेटी के मन के भावों को रखा है ...मैं यह बात बहुत अच्छे से महसूस कर रही हूँ ...क्यों की मेरी बेटी भी यही सब कहती है
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंआँसू आ गए ..
क्या लिखूं ?
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