महेश कुशवंश

6 फ़रवरी 2011

इन ठूठ से बीरान बन में








हम आपके साथ
बहुत दूर तलक जायेगे
आप निभा पाए साथ
तो निभायेगे  
छोड़ ही देंगे साथ उनका,
हमारी उम्मीदों पे  जो मुस्कुरयेगे
देखते है कब और कहा
छोड़ देती है उम्मीद,
हमारी राहों को
हम तो सहते है,
रात-दिन काटो का सफ़र
देखते है वो और
कितने दिन  सह पाएंगे,
कल मेरे घर के
हट गए सारे परदे,
दरवाजे और चौखट भी ...
सीसे के घर अब उनकी नजरो से  
और कितना छिपेगे
देख ही लेंगे वे, और
पकड कर साथ ले जायेगे 
काट देंगे हाथ  हमारे ही  
जो अस्मिता बचायेगे  
सुनने को चीख, हमारी ही  
कोई नहीं होगा
और ना ही  होंगे अपने ही कान
हे इश्वर
क्यों  दिया तुमने,  ये.... मुझे..? 
दिया था तो उसे बचाने की ताकत देता
नहीं दी  तो,
इन ठूठ से बीरान बन में ,
रिस्तो की परिभाषा देता
कम से कम
आदमी को आदमी तो पहचानता
.. हम नहीं मांगते  तुमसे कुछ  भी 
क्यों मांगे,
तुम्हारे  पास होगा ही नहीं कुछ देने को
इस युग को सब कुछ तो दे दिया तुमने  
अगर  होगा भी तो
तुम ही ना हो शायद उस जगह
जहा हम ढूंढते है तुम्हे..
क्योकि ऐसी जगह तुम होते नहीं हो 
शायद ही होते हो  ... 
-कुश्वंश

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर शब्द चुने आपने कविताओं के लिए..

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  2. सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं.
    आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.

    जवाब देंहटाएं

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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