महेश कुशवंश

4 फ़रवरी 2011

.......आखिर कब तक..










जीत ही जायेगे हम
कुछ खेल कर, कुछ बिना खेले
सदियों  से यही तो करते आ रहे है हम
उसकी  टोपी इसके सर
इसकी टोपी उसके सर
क्या होगा इतनी विद्वता का
मात्र किताबी रह गयी
सच कहू
तुम्हे तो संवेदनाओ का ककहरा भी नहीं आया
पेट की आग का दर्द
किसी डाक्टर के पास नहीं होता
पेट की आग चबाने से दूर होती है
और मुह से आखिरी कौर भी छीन लिया तुमने
आर्थिक आजादी  तुम्हारे  लिए मायने रखती होगी
प्याज के लिए नहीं,
प्याज तो जैसा चाहोगे, वैसा ही बिकेगा बहुमूल्य
मूल्य तो तुमने छुपा रखा है
मुझे क्या ?
तुम्हे भी नहीं समझ में आया शायद 
इसकी,उसकी.सबकी आर्थिक आजादी का  मर्म
तुम्हारी नासमझी की हद है जो
लोकतंत्र का मंदिर मूर्तियों के बिना हो गया है
और चारो तरफ सिर्फ खड़े हो गए डंडे
आख मूंदे समझे हो जिन्हें
जो चल रहे है आस-पास 
उन्हें देखो, समझो
ना जाने कब जाग जाएँ  और
बाहर आ जाये, शीत निष्क्रियता से 
आहट तो सुनाई पड़ी होगी तुम्हे
मुबारकवाद दे क्या ?
कब तक ?
नहीं जागने दोगे,
सोये हुए लोगो को
कब तक ?  
.......आखिर कब तक..

 - कुश्वंश






2 टिप्‍पणियां:

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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