महेश कुशवंश

2 फ़रवरी 2011

मस्ती की नीद - सस्ती सी नीद

मुझे सुनाई पड़ रही है
कुछ घंटिया
शायद बैलो के गले में पड़ी हुई है
मस्ती वाली,
टुन्न-टुन्न-टुन्न-टुन्न
बैल गाड़ी खाली है
मै,  
बड़े खोजी मन से
अन्दर झांक कर देखता हू
एक कथरी ओढ़े छह फुट का आदमी
सो रहा है गहरी नीद में
बैलो को पता है शायद कहा जाना है
मालिक को सोने दो
काम तो मुझे करना है
जल्दी किसी को नहीं
ना ही मुझे और ना
मालिक को
बैल भी बोलते है शायद
ट्रक वाला होर्न देता हुआ निकल जाता है
गाड़ीवान की तन्द्रा भंग नहीं होती
दोपहर के वक्त में भी
इस भीषण  ठण्ड में भी
चैन  की नीद की गारंटी
कौन  दे रहा है
उस  गाड़ीवान  को ,
मुझे तो मखमली रजाई-गद्दे में भी,
कमरा गर्म करके भी ,
नीद कहाँ आती है
सारी रात यू ही निकल जाती है,
बिना ऑंखें झपकाए. 
फर्क है,
बैलगाड़ी में पेट्रोल की महगाई का असर नहीं होता
ना ही होती है गाड़ीवान को
पडोसी की नयी बैलगाड़ी से इर्ष्या.
नौटंकी से
रंगीन टेलीविजन का
कोई मुकाबला है क्या ?
है........
नौटंकी रोज नहीं बदलनी पड़ती,
बाज़ार के हिसाब से.
घर फूश का है.. तो अच्छा है,
जल गया तो दुसरे ही दिन  बन जायेगा,
फूस की कोई कमी नहीं है गाव में.
जूते तकिया बने है,
जब बबुआ हुआ था
तब पहनाये थे ससुर जी ने
अब बबुआ उन्नीस  साल  का है,
अब उन्नीस सालो में  
सौ पचास बार तो पहने ही होंगे,
बाकि जेब में ही रक्खे  है,
या तकिया बना कर सोते है, 
नंगे पाव ज्यादा सैलाती है चाल.
......................... 
मै खड़ा देख रहा हू उसे,  
यूं ही सोते हुए,
बैलो को झूमते,
एक लय में सर हिलाते हुए, 
एक चाल से  जाते हुए,
मुझे  चिंता है
आज भी नीद आयेगी क्या ?
शायद ही आये .......

-कुश्वंश




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-कुश्वंश

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