महेश कुशवंश

1 फ़रवरी 2011

हमारे गाव में








हमने देखा है 
कुछ आँखों को रोना रोते
और कही कुछ सपने बुनते
झूमर आस पास ही  तो थी अभी 
कहा गयी
कई सालो से देख रहा हू
इसी बस्ती की सड़क पर 
जो शाम होते ही वीरान हो जाती है
मगर झूमर
देर रात तक दिख जाती है 
बगल में फटे चिथे, मैले कुचैले 
कपड़ो की गठरी समेटे
मानो खजाना हो, कोई लूट ना ले
कल मुझसे माग रही थी एक चाय
बाबूजी पिलादो..
ये झूमर चल, गाना सुना
फिर चाय पिलाता हू
उसने बड़े मन से गाया
परदेसी आया देश में
देश से मेरे गाव में
गाव से मेरी गली में
गली से मेरे घर में
और घर से ......
...................
कहते कहते शर्मा गयी झूमर
और बिना चाय पिए ही भाग गयी
सामने चाय की दुकान वाले ने
मुझे  देश की चहुमुखी प्रगति की कथा सुनाई
मै पंक्तियों में ढाल रहा हू
आप को भी सुना रहा हू
झंडे, बैनर, टोपी की बात बता रहा हू 
कैसे आये, जैसे आये   
आ गए चुनाव, हमारे गाव में
बड़े बड़े लंबरदारो के, बापू के पहरेदारो के
ठिगने  हुए है पाव, हमारे गाव में 
सूखे में चल रही है नाव , हमारे गाव में
खेतो में फसलो संग,
जबसे उगी बन्दूक,
कोयल भी करे काव, हमारे गाव  में
खिच तो गए है तार,
बिजली के, बरोठे तक
हुए कबूतरों के ठाव, हमारे गाव में
आये थे कुछ नवयुवक
समाज सेवा को
भारी हुए है पाव, हमारे गाव में..
...............................? 
झूमर, उन्ही भरे  पावो से निकली
एक पगली है
जो शर्माती भी है
मगर हमें अभी भी शर्म नहीं आती
आयेगी  भी नहीं...

-कुश्वंश









1 टिप्पणी:

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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