महेश कुशवंश

28 जनवरी 2011

नीली किताब














नीली किताब,
वही सरकारी वाली,
कैसे बनेगी,
तुम्हे बताये,
एक दिन पुलिस वाला आयेगा
आठ सौ रुपये लेगा,
पहचान सत्यापित करने के और
तुम्हारे क्रिमिनल रिकार्ड को जाँच कर,
क्लीन चिट  देने के लिए.
इतने क्यों ?
सबको देना पड़ता है,
वो कहेगा.
फिर आयेगे बुद्धिमान, झूठ ना बोलने वाले समझो
पांच सौ रुपये वो लेंगे,
सब कुछ  ठीक भेजने के लिए.
हा..! तत्काल के दो हज़ार पांच सौ दिए है,
और एक हफ्ते में काम का सरकारी कानून है
तो भी , 
या फिर पंद्रह सौ दिए है
सामान्य के लिए, तो भी
कोई फर्क नहीं पड़ता.
हो सकता है बीच में
तुम्हे फ़ाइल बंद करने का पत्र भी मिले,
समझ लो एजेंट  को पकड़ने की बारी है.
एजेंट दो हज़ार मांगेगा,
बाबुओ को जो देना पड़ता है,
ऐसा ही कहेगा वो,
और हो सकता है एजेंट को देने के दुसरे ही दिन,
नीली किताब पोस्टमैन दे जाये तुम्हे
दो सौ रुपये लेकर,
ईमानदारी के
दो सौ रुपये,
और आप इस इमानदार धंधे  में,
बेईमानी तलासते रहे,
तो तलासते रहिये..
तलासते रहिये...
बापू ! 
तुम हँस रहे हो,
उन पर, जिनके लिए तुम
लगोटी लगाये रहे
स्वयं की बुनी हुई 
और हम कहाँ आ गए ...कहाँ

- कुश्वंश


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

हिंदी में