महेश कुशवंश

23 जनवरी 2011

कितने झूठे हो तुम


मेरे हाथो में झूल रहा था एक शरीर
एक शिथिल शरीर
जो अभी खा रहा था
अपनी पत्नी से विवशता की कसमे
आसमान घिरा घिरा सा था
ऐसा की पानी अब बरसे की तब बरसे
शरीर जो अभी कुछ देर पहले था
हल्का फुल्का
एक मिटटी के लोंदे सा,
 बर्फ सा ठंडा कैसे हो गया
मै देखता हू उसके चेहरे को
उसके होंठो को
जो शिव होने लगते है
वैसे ही जैसे सारा गरल पी लिया हो उसने
अपने स्वजनों को विपत्तियों से बचने के लिए
स्वजन चीखने लगते है
इस महादशा में
डाक्टर के पास औषधि के नाम पर सिर्फ
इलेक्ट्रिक झटके ही बचे थे
झटके खाकर भी
शरीर की तन्द्रा भंग नहीं होती
स्वजनों की चीखे तेज होने लगती है
शरीर और बर्फ होता जाता है
उसे ये भी याद नहीं रहता
की कल उसे बिटिया के घर जाना है
नाना बनके शगुन लेकर
मगर बर्फ नहीं पिघलती
इसलिए भी नहीं की एकलौते बेटे को मनाने
मना कर लाने में
ना चाहते हुए भी पत्नी की गलतिया गिनाने में
कितना निरीह हो गया था वो
मगर शरीर टस से मस नहीं होता
स्वजनों को उसे घर से निकालने की जल्दी है
रात हो जाती है
उस बर्फीले शरीर को और बर्फ से ढक दिया जाता है
स्वजन चीख-चीख कर पूरी रात निकल देते है
उस शरीर  की पत्नी को होश नहीं रहता
ऐसे ही बीत जाती  है काली रात
शरीर को ना हिलना था ना हिला
अग्नि में जलते हुए भी नहीं हिला
स्वजन लौट आये खाली हाथ
शरीर की पत्नी उनके खाली हाथ देखती रही
और अपने भी
समय बीता
सब चले गए
कोई विदेश,  कोई देश
किसका भरोषा करे
जो कहते थे साथ-साथ रहेंगे जन्मो तक
वो भी झूठे  थे
कितने झूठे  होते है
अपने भी

- कुश्वंश

1 टिप्पणी:

  1. आप की कविता से सहमत हे जी, बहुत सही ओर अच्छी लगी, आप का बलाग तो कब का शामिल कर लिया, आप जब भी ब्लाग परिवार पर जाये तो होम पर या टाईटल पर किल्क करे ओर फ़िर अपना ब्लाग इस लाईन मे ढुढे...आप की नयी पोस्ट २ आप की पोस्ट के हिसाब से आप को दिखाई दे जायेगा, जब आप की नयी पोस्ट आयेगी तो सब से ऊपर आ जायेगा, धन्यवाद

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