महेश कुशवंश

8 जनवरी 2011

अपनी अंतर्ध्वनि

कौन कहता है
हम इस देश के नहीं
इस धरा के भी नहीं









हम तो कही और से आये है
जायेगे भी वही
क्योकि ये देश हमारे रहने लायक नहीं
तुम्हारे भी रहने लायक नहीं
सब गलत है
देश रहने ना रहने लायक नहीं होता
हम होते है
हम ही नहीं है
इस देश में रहने लायक
इस धरा में भी नहीं
ये सब बाते शायद तुमे समझ में आ रही होंगी
ना समझे तो 
झूठ बोलते हो तुम 
तुम भी जानते  हो
वो सारे निर्णय लेते समय
इक पल को ठिठक गए थे तुम 
ठिठके थे ना
यही ठिठकन तो तुम्हे रोक रही थी 
मगर तुम नहीं रुके
अपनी अंतर्ध्वनि  पर भी नहीं
तो अब तुम्ही  क्यों नहीं छोड़ देते देश,
और हो सके तो ये धरा
नयी किरणों को जगह मिल जाती शायद
किसी और कदमो के लिए
बदलाव के बदलो को बरसने के लिए 
धरती मिल जाती शायद
शायद.

-कुश्वंश

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-कुश्वंश

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