महेश कुशवंश

2 नवंबर 2010

लालची सलाइवा


                                    आज फिर मै
रोते रोते सो गया
बुझे-बुझे चेहरे
रोते-बिलखते चेहरे
शब्द टटोलते चेहरे
घिरे रहे चारो तरफ
जब तक मै नहीं सोया
दागते रहे मूक सवाल
और मै दाए-बाए देखता रहा
नहीं सूझ रहे थे कोई जवाब
मेरे चारो तरफ उड़ रहे थे रुपये
और मै नहीं समझ पा रहा था
उनके उड़ने का मर्म
उची-उची इमारतो में दफ़न
छोटे छोटे सपने
बड़े बड़ो के लालची सलाइवा में सने
विधवाओ के खून
कैसे हो जाता है आचरण
खेलते खेलते भ्रष्ट्र
और हम मुह भी नहीं चुराते
और बोलते भी नहीं
बोलने से हो न जाये  नंगे हम और हमारे दो
छिड जाती है बात इनकी-उनकी, सबकी
अपनी भी
बस नहीं होती तो वो बात जिसे सुनने को
पूरा देश जग रहा है
और रो रहा है
क्यों हो जाते है हम  इतने खामोश
कि अपनी सांसो के सिवा और कुछ नहीं बोलता
रात होने तक
मै तो सो ही जाऊंगा  रोते रोते
क्योकि कल फिर
उठाना है मुझे रोने के लिए
उन चेहरों को कुछ तो कहना पड़ेगा
जो मेरे जागने का इंतजार करेंगे
मेरे एक ऐसी सुबह तक
जब मै जड़ हो जाऊ और जाग ही न सकू

- कुश्वंश

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-कुश्वंश

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