महेश कुशवंश

7 सितंबर 2015

मै कौन हूँ


मै कौन हूँ
कहाँ से आई हूँ
कौन से सोपान चढ़ी हूँ
संस्कृति की कौन सी परिभाषाओं मे  गढ़ी हूँ
कौन सा अस्तित्व है मेरा
कंधों पर चढ़ी
बाल सुलभ क्रियाओं से
मोहती मन
निश्छल प्रेम से सराबोर करती
भावनाओं को कहीं दूर तक कुरेदती
ईस्वर सी छवि
संभावनाओं का एक विस्तरत आकाश बुनती परी
कौन हैं दरिंदे
घर मे ,पड़ोस मे , गली मे या
मेरे निहायत अपने
मेरी गिरेबा मे
न मैं पहचान सकती हू
न जान सकती हूँ
एक तुम हो जो
मुझे  जानते भी हो और पहचानते भी
तुम्हारे हाथों मे पढ़ी, बड़ी हूँ मैं
तुम्हारे हांथ, कब लगे कुरेदने
तुम्ही जान सकते हो
तुम्ही बचा सकते हो मुझे
गली कूचों मे बिखरे दरिंदों से
क्योंकी तुम
बाहर और भीतर छिपे दरिंदों को
बखूबी जानते हो
पहचानते हो
कब बदल जाती है वर्जनायेँ
तुम्ही हो जो  विश्लेषित कर पाते हो
रिस्तो का गड्ड-मड्ड
मुझे कहाँ समझ आता है
समझती तो
न अहिल्या सी  पत्थर बनती
न सीता सी परित्यक्त
और न ही कृष्ण की राधा
रिस्तों की समझ कहाँ थी मुझे
समझ तो मै ये भी नहीं पायी
स्त्री कितने अणु कणों से रचित है
कितनी वर्जनाओं से बंधित है
मैं तो नहीं जानती
तुम तो भली भाति जानते हो शायद
और अपने स्वार्थ मे
न जाने क्यों बना देते हो मुझे
कभी  शीना
कभी आरुषी
और कभी भावरी देवी
और हाँ
इंद्राणी भी .........

-कुशवंश

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

हिंदी में