जब भी कभी
रात के सन्नाटे को चीर
कर
नींद खुल जाती है
न जाने क्यों
मुझे डराने लगते है काली
चादर ओढ़े
अंगिनित सफ़ेद कंकाल,
हाथ उठाए
मुझ पर झपटने को तैयार
मैं पसीने से नहा जाता
हूँ
और मुझे नहीं सूझता कोई
रास्ता
सिवाय आँख खोलने के
आँख खोलते ही मैं धरातल
पर लौट आता हूँ
आँखों में नीद मगर
न जाने कौन सी बेचैनी
मुझे बिस्तर पर लेटने
नहीं देती
ठंडे पानी की घूंट भी
खौलते हृदय को
शांत नहीं कर पाती
कमरे में हल्का अंधेरा
अंधेरे में बेसुध अर्धांगिनी
अब आहट से भी नहीं जागती
और जब
जाग भी जाती है तो यही
कहती है
मेरे तरह नींद की गोली
क्यों नहीं खाते
रात भर जागते हो
पता नही क्या है
जो मुझसे छिपाते हो
मैं अंतरात्मा को झकझोरता
हूँ
और सत्य
की तराजू में
तौले हुये अंगिनित झूठों से
नींद की तुलना करता हूँ
नींद मुझे प्रेयसी सी
लगती है
जो कभी मेरे नहीं हुयी
भरपूर आगोश मे भी
किसी और की लगती है
वैसे ही जैसे अनावस्यक
झूठ
छोटे छोटे से झूठ,
जो न भी बोले जाते
तो
कोई बड़ा परिवर्तन नहीं
होता
परिवर्तन तो तब भी नही
हुआ
जब सच ने नितांत सच का रास्ता चुना
पर्त दर पर्त ,
प्याज से छिलकों सा सच
बहाता रहा आँसू
किसी अमूल चूल परिवरतन की राह मे
बिखरता रहा
रात में सन्नाटे को चीरकर आती रही आवाज
मैं टटोलता रहा अपनी नींद
अपने ही अंतर मे
पूरी रात ..........
-कुशवंश
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