शराब पीकर
नकारा उसका पति
उसे काम पर न जाने देने के लिए
उसे डंडे पीटता है
और ठेकेदार की रखैल
की वीभत्स गाली सुनकर भी
वो नहीं मानती
काम पर चली जाती है
पेट की भूंख और
तन पर कपडे न होने की शर्म
बच्चों के घुसे पेट
उसे अपने तथाकथित परमेश्वर की
अवहेलना को मजबूर कर देते हैं
दिन भर ईंटा , गारा ढो कर,निढाल
जब वो
रोज़ शाम , डरी सहमी
घर लौटती है
तो उसका परमेश्वर
लातों घूंसों से
उसकी थकान मिटाता है
और धुत , बेदम वहीं , जमीन पर लुढ़क जाता है
वो उठती है
डरे सहमे , हुसक रहे बच्चों को
सीने से लगाती है
चूल्हा जलाती है
सेंकती है, मोटी मोटी रोटियाँ
उबालती है आलू
बनाती है भर्त, और
बच्चों को खिलाकर
शराब के नशे में बेसुध पड़े
परमेश्वर को जगाती है
परमेश्वर, हिलता है,उठता है ,खाता है , डकारता है
और फिर
खर्राटे भरने लगता है
वो उसे कम्बल उढाती है और
बचा खुचा खाकर
वहीं परमेश्वर के पैरों पर ,
सिकुड़ कर सो जाती है
सवेरा होता है
वो
हडबडाकर उठती है
काम पर जाने से पहले
उसे पूरे दिन का खाना जो बनाना है
उसके जाने के बाद भूखा न रहे परमेश्वर
उसके हाँथ
मशीन की तरह चलते हैं
इसलिए भी
कि , पिटते हुए वो कोई काम जो नहीं कर पाती
और सुबह
उसके पास मरने की भी
फुर्सत नहीं होती,
फुर्सत ही नहीं होती………
नकारा उसका पति
उसे काम पर न जाने देने के लिए
उसे डंडे पीटता है
और ठेकेदार की रखैल
की वीभत्स गाली सुनकर भी
वो नहीं मानती
काम पर चली जाती है
पेट की भूंख और
तन पर कपडे न होने की शर्म
बच्चों के घुसे पेट
उसे अपने तथाकथित परमेश्वर की
अवहेलना को मजबूर कर देते हैं
दिन भर ईंटा , गारा ढो कर,निढाल
जब वो
रोज़ शाम , डरी सहमी
घर लौटती है
तो उसका परमेश्वर
लातों घूंसों से
उसकी थकान मिटाता है
और धुत , बेदम वहीं , जमीन पर लुढ़क जाता है
वो उठती है
डरे सहमे , हुसक रहे बच्चों को
सीने से लगाती है
चूल्हा जलाती है
सेंकती है, मोटी मोटी रोटियाँ
उबालती है आलू
बनाती है भर्त, और
बच्चों को खिलाकर
शराब के नशे में बेसुध पड़े
परमेश्वर को जगाती है
परमेश्वर, हिलता है,उठता है ,खाता है , डकारता है
और फिर
खर्राटे भरने लगता है
वो उसे कम्बल उढाती है और
बचा खुचा खाकर
वहीं परमेश्वर के पैरों पर ,
सिकुड़ कर सो जाती है
सवेरा होता है
वो
हडबडाकर उठती है
काम पर जाने से पहले
उसे पूरे दिन का खाना जो बनाना है
उसके जाने के बाद भूखा न रहे परमेश्वर
उसके हाँथ
मशीन की तरह चलते हैं
इसलिए भी
कि , पिटते हुए वो कोई काम जो नहीं कर पाती
और सुबह
उसके पास मरने की भी
फुर्सत नहीं होती,
फुर्सत ही नहीं होती………
कडवी अनुभूति
जवाब देंहटाएंउफ़ ...जिंदगी का कड़वा सच
जवाब देंहटाएंजिंदगी के ऐसे वीभत्स रूप भी होते हैं !
जवाब देंहटाएंबहुत दर्दनाक सच्चाई।
बेहद दर्दनाक और पीड़ादायक है
जवाब देंहटाएंऐसी स्त्रियों का जीवन..
बेहद मार्मिक रचना...
:-)
कल 25/08/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
मेरे घर काम करने वाली कविता का भी यही हाल है
जवाब देंहटाएंकई बार मैं बोली विरोध करो ,मारे तो हाथ पकड़ो
बोलना-लिखना आसान होता है ..............
विभा जी आप बिलकुल सही हैं , मगर क्या करें , दिल में जो लगता है ,कलम बोलने लगती है और कलम की ताकत से बदलाव संभव है ऐसा इतिहास रहा है. शायद सोच बदले ..
हटाएंसमाज की दर्दनाक सच्चाई है..
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक और मर्मस्पर्शी रचना.
अनु
मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंबेहद दर्दनाक
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक रचना...!
अब तो इन परिस्थितियों और सोच को बदलना ही चाहिए ........
जवाब देंहटाएंअब तो इन परिस्थितियों और सोच को बदलना ही चाहिए ........
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया.वाह -वाह बहुत अच्छी रचना .सादर नमन
जवाब देंहटाएंभारतीय नारी की सच्ची तस्वीर....बहुत मर्मस्पर्शी...
जवाब देंहटाएं