सोचता हूँ
बिना पंख
उड़ जाऊं
और उस को कोसूं
जिसने पंख नहीं दिए ....
सोचता हूँ
प्रारब्ध से मिली सम्रधता से
टेढा चलूँ
इतराऊँ
पैरों तले ,
दबते,
कीड़े मकोडों पर
फब्तियां कसूं
अपात्रों को
पात्रता की कसौटी पर तौलूँ
और तराजू को कहीं दूर
रसातल में फेंक आऊँ
सोचता हूँ
कौन सा रंग चढ़ेगा मुझपर
जो मुझे
रंगीन भी रहने दे
और मुझे कालिख से भी बचाले
मेरी इस जमीन से
दूर उस आसमान तक
बहुत से ईश-कण बिखरे हैं शायद
जिनकी खोज में
कई .आइन्स्टीन और गलीलियो लगेंगे
मगर उन गलियों में
कोई नहीं करेगा
कैसी भी खोज
जहां प्रचुर मात्रा में
श्रम बिन्दु गिरे हैं
जो अभी अभी
गगन चुम्बी इमारतो से बहकर
लौटे है
अपने आशियाँ में ..रोज की तरह .
आओ
एक और जहां तलाशे
क्योंकि यहाँ पर अब कोई खोज नहीं बाकी
जो हमें
हमारा चेहरा दिखा दे ....
अपना चेहरा ...
सोचता हूँ
जवाब देंहटाएंकौन सा रंग चढ़ेगा मुझपर
जो मुझे
रंगीन भी रहने दे
और मुझे कालिख से भी बचाले
सुंदर और भावपूर्ण आज के जीवन संदर्भ में कहती हुई रचना
बधाई-------
आग्रह है मेरे ब्लॉग में सम्मलित हों,प्रतिक्रिया दें
jyoti-khare.blogspot.in
आओ
जवाब देंहटाएंएक और जहां तलाशे
जो हमें
हमारा चेहरा दिखा दे ....
अपना चेहरा ...
vaah behatreen
जवाब देंहटाएंबहुत सुद्नर आभार आपने अपने अंतर मन भाव को शब्दों में ढाल दिया
जवाब देंहटाएंआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
एक शाम तो उधार दो
आप भी मेरे ब्लाग का अनुसरण करे
बहुत नया अंदाज कविता का |
जवाब देंहटाएंआशा
आओ
जवाब देंहटाएंएक और जहां तलाशे
क्योंकि यहाँ पर अब कोई खोज नहीं बाकी
जो हमें
हमारा चेहरा दिखा दे ..
अपना चेहरा ..
बहुत सुन्दर हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....
रचना में बहुत गूढ़ भाव. बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत गहराई होती है आपकी रचनाओं में ..
जवाब देंहटाएंगज़ब लिखा आप ने बधाई ....
जवाब देंहटाएंये चेहरा तो कोई नहीं दिखाता और हम खुद देख नहीं पाते .... बहुत अच्छा लिखा !!!
जवाब देंहटाएंमन की व्याकुलता ,
जवाब देंहटाएंमन का भटकाव
तलाश रहा है
एक धरातल.....
बहुत की गूढ़ भाव लिये रचना ऊँचाइयों को छू रही है...
गहराई लिए ... भावों की अभिव्यक्ति ...
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