मेरी आँखों के सामने
एक संपूर्ण शरीर
पहले परिवर्तित हुआ
लाल-पीली-हरी धधकती लपटों में
फिर रह गया अनाकृत आकार
आत्मा जो अमर है
लेने लगती है नया आकार
और हम देखते रह जाते है
सिर्फ लपटे
और इन लपटों में भस्म होता शरीर
शरीर को उलट पलट
भस्म करती आग
और क्रिया की समाप्ति का इंतज़ार करते लोग
और देखते रहते है
शरीर की अंतिम परिणति
रोते बिलखते लोग अब चुप है
चुप इसलिए भी है की उन्हें
बहुत से कर्म-काण्ड करने है
सदियों से चले आ रहे ..
जिन्हें वो ना करना चाहता हो
तो भी
और मिटा देना चाहते है
उस शरीर की सारी निशानियाँ
मुड्वाना है सर
देना है भोज
पुरोहितों को देनी है दक्षिणा
एक बृहत भोज जो समाज में सन्मान दिलाये
एक खासी दक्षिणा
जो आकार बढ़ाये
मेरी कमीज़ उससे ज्यादा सफ़ेद होनी चाहिए
अब इसमें
अन्दर के कपडे रहें न रहें तो भी
क्या ये किसी शरीर के प्रति सन्मान का तरीका सही है ?
यदि हां...!
तो क्या कुछ बदलना नहीं चाहिए ?
क्या ऐसे ही धू...धू कर जलता रहेगा शरीर
उन आँखों के सामने
जो एक खरोंच लग जाना भी गवारा नहीं करते
जलते हुए देखेंगे ही नहीं
इंतज़ार भी करेंगे
अंतिम टुकड़े को नदी में बहाने के लिए
शरीर की सद्गति के लिए
आखिर कब तक ...
ऐसी ही होगी गति ..
तथाकथित सद्गति.
अब ये आस्था का प्रश्न नहीं है
न ही धर्म पर कोई सवाल
धर्म तो हमने आपने बनाये है
प्रश्न आपके अंतर-मन से है
उद्देलित मन का प्रश्न है
आप ही बताओ ............................................
-कुश्वंश
एक संपूर्ण शरीर
पहले परिवर्तित हुआ
लाल-पीली-हरी धधकती लपटों में
फिर रह गया अनाकृत आकार
आत्मा जो अमर है
लेने लगती है नया आकार
और हम देखते रह जाते है
सिर्फ लपटे
और इन लपटों में भस्म होता शरीर
शरीर को उलट पलट
भस्म करती आग
और क्रिया की समाप्ति का इंतज़ार करते लोग
और देखते रहते है
शरीर की अंतिम परिणति
रोते बिलखते लोग अब चुप है
चुप इसलिए भी है की उन्हें
बहुत से कर्म-काण्ड करने है
सदियों से चले आ रहे ..
जिन्हें वो ना करना चाहता हो
तो भी
और मिटा देना चाहते है
उस शरीर की सारी निशानियाँ
मुड्वाना है सर
देना है भोज
पुरोहितों को देनी है दक्षिणा
एक बृहत भोज जो समाज में सन्मान दिलाये
एक खासी दक्षिणा
जो आकार बढ़ाये
मेरी कमीज़ उससे ज्यादा सफ़ेद होनी चाहिए
अब इसमें
अन्दर के कपडे रहें न रहें तो भी
क्या ये किसी शरीर के प्रति सन्मान का तरीका सही है ?
यदि हां...!
तो प्रागैतिहासिक युग ही ठीक था
जहाँ हम प्रगति के शैशव काल में थे अज्ञानी
यदि नहीं,,,!तो क्या कुछ बदलना नहीं चाहिए ?
क्या ऐसे ही धू...धू कर जलता रहेगा शरीर
उन आँखों के सामने
जो एक खरोंच लग जाना भी गवारा नहीं करते
जलते हुए देखेंगे ही नहीं
इंतज़ार भी करेंगे
अंतिम टुकड़े को नदी में बहाने के लिए
शरीर की सद्गति के लिए
आखिर कब तक ...
ऐसी ही होगी गति ..
तथाकथित सद्गति.
अब ये आस्था का प्रश्न नहीं है
न ही धर्म पर कोई सवाल
धर्म तो हमने आपने बनाये है
प्रश्न आपके अंतर-मन से है
उद्देलित मन का प्रश्न है
आप ही बताओ ............................................
-कुश्वंश
मन के प्रश्न जो हमेसा ही रहते है..... सार्थक अभिवयक्ति....
जवाब देंहटाएंसार्थक प्रश्न करती अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशरीर की अंतिम परिणति बस यही है ....??? कब तक पता नही ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं!
परिस्थियाँ कभी नहीं बदलेंगी क्युंगी लोग बदलना नहीं चाहते । असंवेदनशीलता , द्वेष , टुकड़ों में बंटते घर , दिलों को जुड़ने से रोक देते हैं। सच यदि है की पाषाण काल ही बेहतर था। आज तन पर तो वस्त्र हैं , लेकिन संस्कार निर्वस्त्र हो रहे हैं। सभ्यता सिसक रही है।
जवाब देंहटाएंमन की बात ही तो कोई समझता नही…………सार्थक प्रश्न्।
जवाब देंहटाएंसार्थक व सटीक लिखा है आपने ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और सार्थक ...
जवाब देंहटाएंसार्थक चिंतन । लेकिन कुछ तो अवश्य बदलेगा ।
जवाब देंहटाएंसत्य है....विचारणीय है यह प्रश्न....
जवाब देंहटाएंकुश्वंश जी - बहुत उपयुक्त प्रश्न | कोशिश करती हूँ -
जवाब देंहटाएंअब देखिये, एक बल्ब होता है | उसका सम्बन्ध बिजली की तार से जुड़ता है - और वह जलता है | तब वह रौशनी फेंकता है | फिर वही बल्ब अपना "जीवन" पूर्ण कर लेने के बाद "फ्यूज़" हो जाता है | कुछ भी नहीं बदला, बस उस ऊर्जा स्त्रोत के प्रवाह का जो पूरा सर्किट था, वह टूट गया, कि एक तार चटक जो गयी | तब वह बल्ब बेकार |
वह बल्ब कितने ही सुन्दर फानूस का हिस्सा रहा हो, अब उसका, कांच, कॉपर का तार आदि किसी काम के न रहे - कि जो प्रवाह उसे एक प्रकाश पुंज बनाता था - उससे उसका सम्बन्ध टूट गया | अब उस बल्ब के पदार्थों का रिसायकल ही हो जाना अच्छा होगा | नहीं हुआ - तो तो फिर धीरे धीरे सिर्फ फ्यूज़ बल्ब बचेंगे, और नयी सृष्टि का कच्चा पदार्थ ख़त्म हो जाएगा | तो हम उस पुराने जीर्ण बल्ब को बदल देते हैं | कि अब वह बल्ब एक प्रकाश पुंज नहीं, सिर्फ एक कांच का और धातु का पुंज रह गया है | ऐसा ही है यह शरीर भी |