मैं जानता हूँ,
तुम भी जानते हो
उस आदमी को,
जो न कभी चैन से सो सका,
न सही अर्थों में
जागते देखा गया,
ईर्ष्या के अंगारे
झुलसाते रहे उसे
दिन प्रतिदिन,
खिडकियों से झांककर उसने
ओढ़नी चाही सम्रधता,
इसी कुत्सित प्रयास में
न जाने कितनी बार
चादर से निकल गए उसके पाव,
वो क्या है ?
न उसने कभी सोचा,
ना जाना-समझा,
कल रात वो सो गया
चिर निद्रा मैं,
और वही लोग
जिनके प्रति वो सदैव से विरक्त था ,
ईर्स्यालू था,
कंधे पर उठाकर
अग्नि को समर्पित कर आये,
बिना कोई देर लगाये ,
इस भय से
कही वो फिर न जीवित हो जाये,
मगर अग्नि को समर्पित उसकी देह
धुएं में परिवर्तित होने से पहले
अट्टहास करने लगी ,
मानों कह रही हो
मै रक्तबीज हूँ
कभी नहीं मारूंगा,
झाँक कर देखो
झाँक कर देखो
तुम्हारे बीच फिर उग आया हूँ ,
सच कहा उसने,
रक्तबीज मर सकता है क्या ?
-कुश्वंश
शानदार रचना।
जवाब देंहटाएंमै रक्तबीज हूँ
जवाब देंहटाएंकभी नहीं मारूंगा,
यह पंक्ति रचना का सार है , बधाई
rachna to achhi hai hi, is disha kee soch adhik sarahniye hai
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसुन्दर , भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंहर आदमी पर सवार है यह रक्तबीज किसी बेताल सा ...सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंआदरणीय कुश्वंश जी
जवाब देंहटाएंकविताबाजी पर आपकी गंभीर बात हमे समझ में नहीं आई
कृपया हमे समझाए
बहुत सारगर्भित सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंकुश्वंश जी कविताबाजी ब्लॉग मेरा नहीं है मैं तो उसका मेम्बर हूँ जो कभी कभी अपनी कविता पोस्ट कर देता हूँ और दुसरो की कविता पढने का भी मौका मिल जाता है उस ब्लॉग पर
जवाब देंहटाएंकुश्वंश जी इसी प्रकार साहित्य प्रेमी सूंघ ब्लॉग से भी जुदा हुआ हूँ
जवाब देंहटाएंसंजय जी , आप गुणी व्यक्ति है, संवेदनशील भी , चाहे तो कविता विधा को इस तिरस्कार से बचा सकते है नाम बदलने की सिफारिस कर-अभिवादन
जवाब देंहटाएंकुश्वंश जी, बहुत ही शानदार कवि हैं आप,
जवाब देंहटाएंधन्य हो जाता हूँ यहां आकर,
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मै रक्तबीज हूँ
जवाब देंहटाएंकभी नहीं मारूंगा,
झाँक कर देखो
तुम्हारे बीच फिर उग आया हूँ ,
सच कहा उसने,
रक्तबीज मर सकता है क्या ?
बहुत सुंदर रचना के लिए आभार।