महेश कुशवंश

27 मई 2010

तुम्हारा दिल

कही अन्दर ही बसता है तुम्हारा दिल
जिसे तुम तलासते  हो इधर उधर,
इसके उसके पास
या फिर शायद मार दिया है उसे
बिना  बताये, क्योकि
तुम्हारे दबे छिपे कामों में नही रहता था शरीक,
न ही तुम्हें, कुछ अनर्गल करने से पहले, चुप रहता था
दिल तो दिल है, कैसे छोड़ सकता था अपनी जड़
जिसे तुम ना जाने कब पीछे छोड़ आए हो
बहुत पीछे

-महेश कुश्वंश

4 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामीजून 03, 2010 7:47 pm

    "दिल तो दिल है, कैसे छोड़ सकता था अपनी जड़
    जिसे तुम ना जाने कब पीछे छोड़ आए हो"
    जी बिल्कुल सही "दिल" सुनते हैं पर मानता कौन है

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  2. कभी-कभी दिल भी अपनी जगह छोड़ जाता है, अच्छी कविता
    Learn By Watch Blog

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  3. जिसे तुम ना जाने कब पीछे छोड़ आए हो, bahoot khoob

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  4. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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-कुश्वंश

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