महेश कुशवंश

28 मार्च 2016

....होली को आने जाने दो ....


त्योहार की तैयारी मे
कौन कितना आगे गया
किसने किस पर कितना रंगा बिखेरा
किसी को याद नही रहा
मेज पर सजे रहे
तरह तरह के पकवान
कई दिनों बासी होते रहे
उनमे से एक तिहाई भी खर्च नहीं हुये
नहीं खाये गए
जो खाये गए उनमे
गिनती घर वालों की भी थी
दरवाजे पर घंटी बजी
कोई आया
माली था
मालकिन त्योहारी
बीस रुपये देकर दो गुझिया भी पकड़ा दी
फिर घंटी बाजी
कूडे वाला
उसे भी दो गुझिया पकड़ा दी
कुछ तो खतम हों
हम तो दोनों शुगर के मरीज हैं
चलो कहीं चलते है
हम क्यों चले
उन्हें भी तो आना चाहिए
पिछली होली पे हम गए थे मगर वो नहीं आए
चलो कहीं मंदिर ही चलते है
कोई आ गया तो
बंद घर देखकर उलहाना देगा
पिछले पाँच दिनों से
घर मे बंधे है
किसी के आने के इंतज़ार मे
मगर कोई नहीं आया
न हम कहीं जा पाये
होली जरूर आई
और चली गई
बिना रंग लगाए
पहले तुम पहले तुम
इसी द्वंद ने
सफ़ेद  छोड़ दिया
बच्चे सात समुंदर पार से
आने के प्रयास  मे नहीं आ पाये
हम भी
अभी कुछ दिनों पहले ही तो गए थे
इस लिए नहीं जा पाये
जाएँ भी तो खाली घर छोड़कर .......कैसे
होली को आने जाने दो
हम तो बदरंग हो गए है
हमें बदरंग ही रहने दो .......

-कुशवंश






कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

हिंदी में