महेश कुशवंश

10 जुलाई 2014

भटकता सत्य



कल रात मुझे मिल गया
दर दर भटकता सत्य
मैले कुचैले, फटे कपड़ों  मे
मुझे विस्वास ही नही हुआ
सत्य के इस बदहाल रूप  पर
मैंने पूछा
अटल आस्थाओं के देश मे
घोर आध्यात्मिकता से परिपूर्ण गुरुओं की
कर्मभूमि में भी
दर दर हांफता सत्य
मुझे विस्वास ही नहीं  हुआ
किससे पूंछू ये रहस्य
सत्य के इस पराभव का अर्थ
जगतगुरु शकराचार्य ने सत्य बोला
साईं भगवान् नहीं
साईं मुस्कुराए, सत्य से रूबरू हुए
दाये बाये देखा और सोचा
ये असत्य मैंने कब बोला
कोई किसी को भी भगवान् माने
इसमें असत्य क्या है
हमारे देश में  जब पत्थर भगवान् हो जाते है
तो इंसान क्यों नहीं
गोलगप्पे खाकर भविष्य बदलने वाले भी
और घोर तपस्या  कर  सालों कन्दिराओं में रहने वाले
जनता से ओझल साधू  भी
किसे ऐतराज़ है अगर वो भगवान् हो जाते हैं
ये सत्य और असत्य की बहस
कोई अंजाम  तक नहीं पहुचेगी
तर्क कुतर्क की ये परिभाषा
सत्य की पहचान करेगी क्या
सत्य तो फिर भी रहेगा फटे हाल
अगर असत्य आकार लेगा
सर चढ़ कर बोलेगा
महिमा मंडित होगा
और उससे भी अधिक
हर जेब में रहेगा
ह्रदय में भी
दबंग सा
सत्य को विस्थापित कर .
तब आप भी कहेंगे
इसमें असत्य क्या है

-कुश्वंश

1 टिप्पणी:

  1. सर! आज तक के अनुभव से बस इतना ही पता चला की सत्य भटकता बहुत है...सच लिखा है आपने..बधाई..

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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