महेश कुशवंश

25 अप्रैल 2014

कोई नया आसमाँ



रात के अंधेरे मे
जब भी
सन्नाटा चीखता है
मै अपने कान पर हथेली रख लेता हूँ
शायद
अवांछित शब्द
पिघले शीशे से ना हो जाएँ
........................
शब्द !
जो कभी रेशमी अहशास से होते थे
दिल मे सरकते थे,
कभी बंद आँखों  मे
चाँदनी सी अठखेलियाँ करते थे
और कभी
ओस की निर्मल बूंदों से
मेरे चेहरे पर बिखर जाते थे
मैं रोमांचित हो
शब्दों के व्यापक अर्थ तलासने लगता था
मगर शब्द
कोई अर्थ नहीं देते
बस देते थे कोई अहसास ....कोमल,
और
समझ से परे किसी क्षीतिज मे
आकाश गंगा बना देते थे
और हम उस आकाश गंगा मे
ढूंढ लेते
कोई आसमाँ
कोई नया आसमाँ
नई प्रथ्वी सा..........

कुशवंश

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना रविवार 27 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!


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  2. सधे हुए शब्दों की कलाकारी

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  3. सन्नाटे का शोर ... बहुत तीखा होता है ...

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  4. शब्द की व्याप्ति असीम है - अपने में अनेक अर्थ समाहित कर सकता है ,उद्भावक समर्थ हो तो !

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  5. मनःस्थिति के साथ अर्थ बदलते हैं अपने अर्थ। … सुन्दर रचना

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  6. और हम उस आकाश गंगा मे
    ढूंढ लेते
    कोई आसमाँ
    कोई नया आसमाँ
    नई प्रथ्वी सा..........

    बहुत ही सुन्दर अहसास करवा दिया है आपने.

    आभार कुशवंश जी.

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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