महेश कुशवंश

7 जून 2016

जेहन से एक उछला पत्थर



मेरे जेहन से एक पत्थर उछला
मैंने सोचा 
उसके हृदय मे लगा 
उसने मुझे देखा ही नहीं
मैंने सोचा शायद मेरा भ्रम है 
पत्थर शायद उछला ही नहीं
मैंने रास्ते से कटीली झाड़ियाँ बटोरीं
और उसके निकास पर बिछा दी
वो उनपर पैर रखकर चला गया
मैंने देखा कुछ दूर जाकर उसने पैर के काटें निकाले
और पीछे मुड़कर भी नहीं देखा 
मैंने उसके घर को रूख किया 
और उसके पड़ोसी के घर चला गया
उसकी पत्नी की अल्ल्हड्ता पर चर्चा की 
पड़ोसी ने मेरे मन की थाह ली 
और उसके अंतर वस्त्र के रंग खोल दिये
पति के जाने के बाद चित्रित 
रंगीन और गुलाबी सोच के न जाने कौन कौन से आसमानी  रंग 
उसके ही नहीं मेरे भी अपभ्रंशित मन मे 
जो भरे थे 
आकार लेने लगे 
मैं और वो पड़ोसी  
न काम पर जा सके 
न अपना मन्तव्य हल कर सके
वो शाम को कब आया 
मुझे उसमे दिलचस्पी जाग चुकी थी 
पूरे मोहल्ले मे खुसुर फूशूर थी 
क्या मेरा मन्तव्य हल हो रहा था 
उसकी खूबसूरत पत्नी छज्जे पर आई 
साथ मे आया ...... वो 
इतना प्रसन्न , जितना मैंने कभी नहीं देखा था 
उसने न मुझे देखा , न पड़ोसी को 
और पत्नी का हाथ थामे 
अंदर चला गया 
..........
दिन बीते 
समय बीता
पड़ोसी की लड़की , सब्जीवाले के साथ भाग गई 
और शर्म से , पत्नी मायके
पड़ोसी , चौराहे पर टून्न पड़ा रहता है 
मुझे  वहाँ से कोसों दूर , प्रागैतिहासिक गाव का रुख करना पड़ा 
वहा .भी .... किसी ने मुझे टिकने नहीं दिया 
गाव की हरीभरी  चौपाल मे 
जातिवादी बीज बो दिये थे मैंने 
कालांतर मे मटरू ने मेरा हृदय निकाल लिया 
और फेंक दिया , कुए मे 
महीनों सड़ता रहा मैं , मेरी सोच 
अब भी मेरे साथ थी 
आदमी को आदमीयत से काटने की सोच 
न जाने किस लोक से आई थी 
जो मर कर भी जीवित थी ....

-कुशवंश




1 टिप्पणी:

  1. आपने बहुत ही शानदार पोस्ट लिखी है. इस पोस्ट के लिए Ankit Badigar की तरफ से धन्यवाद.

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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