महेश कुशवंश

2 जून 2016

.......बाबा .........












रात के ग्यारह बजे थे
तेज रफ्तार गाड़ी 
घर को भागी जा रही थी
फर्राट , कोई रोक टॉक नहीं 
न ही लाल लाल चेहरे किए,
इस पर, उस पर ताना कसते, चेहरे
न ही आगे निकालने की होड
न ही पीछे आते गाड़ी के हार्न का शोर
सब कुछ एकदम शांत 
अचानक आगे मोड पर 
एक अस्सी साल के
राम नामी दुपट्टा ओढ़े साधू
गाड़ी की चपेट मे आने से बचे
या यू कहूँ 
ची.............. के साथ उनसे लगभग टकरा ही गई थी 
हाथ मे लटका डिब्बा दूर जा गिरा
बाबा गाड़ी से चिपक के पड़े थे
दिन होता तो शायद
सबक सीखने वालों की भीड़
मुझे सबक सिखाने को आगे आ गई होती
रात थी कोई नहीं था 
मैंने गाड़ी रोकी 
बाबा को उठाया 
गनीमत थी बाबा उठ गए 
उन्हे चोट बिलकुल नहीं थी 
बच गए लल्ला........बाबा ने उठने के लिए मेरा कंधा 
पकड़ लिया था 
लल्ला .......... मैं  चौका 
जाना पहचाना शब्द 
मेरे गाव की भाषा 
मुझे बाबा का चेहरा जाना पहचाना लगा 
मैं आश्वस्त न नहीं था 
चेहरे को गौर से देखा 
घनी सफ़ेद दाढ़ी के बीच 
छिपे चेहरे को देखा
अन्यास "ईमानदार" बाबा लगे मुझे 
मेरे गाव के 
लगभग बीस साल पहले 
न जाने कहाँ खो गए थे 
गाव ने तेरहवी भी कर दी 
दोनों बच्चे.... सर मुड़ाए 
पिता के मर जाने का शोक मानते रहे 
सुखी दादी ....... असमय...... हो गई बूढ़ी
बाबा ... कौन बाबा... बाबा ने हाथ चेहरे पर कर लिये ...और 
शायद मुझे ....पहचान गए थे 
वो मुझसे ... भागने लगे थे ...
मैं आश्चर्यचकित था 
लगभग बीस साल पहले खोये बाबा मेरे सामने थे 
मैंने उन्हें जकड़ कर पकड़ लिया था 
बाबा .... कहाँ चले गए थे
मैंने जबर्दस्ती उन्हें कार मे बैठाया 
शायद वो मेरे साथ आना चाहते थे 
न चाहते तो भाग सकते थे 
मैं उन्हे घर ले आया 
और रात भर उनकी कहानी सुनता रहा 
मेरे सामने थे एक कर्ज मे दबा किसान 
जिसकी भूमि बंधक थी बैंक मे 
फसल बर्बाद हो चुकी थी 
अमीन ..... ऋण चुकाने के नाम पर 
तहसील हवालात मे डालना चाहता था 
और जब भी आता....... रुपये ले जाता 
छोड़ने की ऐवज मे 
घर मे फाँके थे दो छोटे बच्चे
एक शादी को बहन
खटिया  लगे माँ बाप... भी मेरे जिम्मे
दो और भाई थे ... अपनी ग्रहस्ती मे मस्त 
एक रात मै...... जिम्मेदारियों से भाग खड़ा हुआ 
सबको रोता छोड़कर 
और किसी की सुध नहीं ली
शायद जिम्मेदारिया निपटाने का कोई और रास्ता नहीं बचा था 
.... बाबा ... तुम...... कमजोर थे ......तुम्हारा दस साल का बेटा 
सारी जिम्मेदारियों को समहालके 
चैन से रह रहा है 
भरे पूरे परिवार के साथ
और माँ भी है ..... उसपर प्यार लुटाने को 
त्ंहे क्या मिला 
भगवान मिल गए क्या ...?
जिम्मेदारियों से मुक़ाबला करते तो परिवार रूपी भगवान मिलते 
भीख मे कोई ....... सुखी नही रहता 
मैंने पूछा 
परिवार से मिलोगे क्या 
बाबा के आँखों से अविरल धारा बह रही थी 
वो... मुझे बड़े स्नेह से देख रहे थे 
लल्ला...... किसी को बताना मत मैं जिंदा हू ......
मैं तो बीस साल पहले ही मर गया था 
बाबा चलो घर तुम्हें सब ठीक से रखेंगे 
बेटा ....... मैं  बहुत कमजोर निकला 
जिम्मेदारियों से भाग कर साधु बन गया 
अब जिंदा हौंउगा..... तो अपनों की नफरत से मरूँगा 
मुझे ये सडी गली ज़िंदगी ही जीने दो 
बाबा न जाने कब घर से निकल गए 
और फिर कभी नहीं मिले
मैं भी उनके परिवार को 
उनके जीवित होने की बात 
कभी नहीं बता सका ......

-कुशवंश





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