महेश कुशवंश

1 जून 2015

टूटे हुये सपने











आज मैं टूटे हुये सपने 
सजोना चाहता हूँ
एक एक कर उन्हे यादों मे 
पिरोना चाहता हूँ 
मेरे ही नाव पानी मे क्यों डूब गई 
जबकि सबकी उस पुलिया तक पहुच गईं 
मैं क्यों नही सीख पाया तैरना
बाकी सब स्वीमिंग पूल तैर गए 
कुछ तो इंग्लिश चैनल पार कर गए 
हाँ कुछ ऐसे भी थे 
जो मेरे परछायी टटोलते थे 
परछाइयों मे गुम हो गये 
वो अपनी छाया मे समाहित हो गए 
और कहीं बहुत पीछे छूट गए 
एक स्कूल का सपना जो 
नदी सा हिलोरे लेता था 
बांध तोड़कर बस्ती मे बह गया 
कंक्रीट के जंगलों मे लहूलुहान हो गया 
सपना तो बड़ी बड़ी गाड़ियों मे झाँकते कुत्तों ने निगल लिया 
दरबान की भाले  की नोक मे लटक गया 
शोफर की कैप मे फसकर दम तोड़ गया 
सपना जो मेमसाहब की  पसीनायी दुर्गंध मिले कपड़ों मे सड़ता रहा 
और तड़पता रहा 
सेठ जी की चिकन बिरियानी मे 
सपना जो तेजाबी महक मे फेफड़े गलाता रहा 
सपना जो फुटपाथों पर सोया ,
कुचलता रहा भारी भरकम  गाड़ी मे 
सपना जो खाकी की मूँछों मे पैबंद था 
रात भर चारपाई मे चरमराता रहा 
सपना जो सडी गली सभ्यता मे परवान चढ़ा 
सपना ही रहा 
सपने तो देखने के लिए ही होते है 
और दम तोड़ने के लिए भी .....

-कुशवंश

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