तेज हवा के झोंकों से डर के
चीख पड़ता हूँ मैं
इस अनियंत्रित हवा ने
पहले पत्तियाँ छीनीं
टहनियां मेरे कन्धों से उखाड़कर
दूर , इधर-उधर बिखेर दीं
और ये निर्दयी हवा
फिर भी न रुकी
फिर भी न रुकी
जब तक की मैं भूमि से उखड कर
जमीन पर न आ गया
अब मुझमें कुछ नहीं बचा
जिसे उखाड़ सके ये
उस बूढ़े की तरह
जिसका जीवन चित्र मुझसे मिलता है
मुझे याद है
जब मुझ मे
बीज से
कोपलें उगी थीं
बीज से
कोपलें उगी थीं
वो बूढा
बच्चों के बीच ताली मार कर हंसा था
बच्चों के बीच ताली मार कर हंसा था
जब मैं बूढ़े को छाया देने लायक हुआ
तब वो जवानी के नशे में था
उसे ना अपनी परवाह थी
न मेरी छाया की चाह
परवाह थी
बस सौंदर्य की और
सम्रधता के नित नए सोपानों की
उसे उसकी भी कोई परवाह नहीं थी
जो उसे बीच रास्ते छोड़ गयी
नितांत अकेला
लेकिन मुझे परवाह थी उसकी
मैंने उसे ईंधन दिया
धन दिया
मेरी गोद में बढे उसके
बेटी बेटे
वे कभी मुझपर चढ़े
मुझे नोंचा, झकझोरा , लहूलुहान किया
फिर सब बड़े हो गए
नए नए शहरों में बस गए
जब कभी शहरों से आये
तो हिदायत दे गए
पापा आप दूध नहीं पीते क्या ?
अब बूढा उन्हें नहीं बताता
मुझे बताता है
क्यों नहीं पीता वो दूध
सालों से क्यों नहीं पहने नए कपडे ?
लडकियां आतीं है
और मेरी उभरी जड़ों पर बैठ कर
पंचायत करतीं हैं
भाई भाभियों के कर्त्तव्य गिनातीं हैं
और चली जातीं हैं
बूढा फिर सुनीं आंखें लिए मेरे पास आता है
और बिना कुछ कहे
डबडबाई आँखों से सब कुछ कह जाता है
अतीत का भोग हुआ यथार्थ
और भविष्य का ग्रहण लगा सूर्य
उसकी आँखों में उतर आता है
मेरी तरह
उसके पास भी
किसी को देने के लिए कुछ नहीं बचा
वो भी होगया है ठूंठ
और हवा को भी चलना है
वो चली
और ऐसी चली की मेरा सीना चीर गयी
कर्ज से
बूढ़े की रही सही जमीन भी चली गयी
और मैं
सीधा तने रहकर भी
पुख्ता और मजबूती का दंभ भरने वाला
दो फांकों में बटकर जमीन पर बिखर गया
....
सूर्य की लालिमा फुट रही थी
मेरी बिखरी पडी टहनियों के मध्य
वो बूढा भी
सो रहा था
बिना हिले डुले
....
नए नए शहरों में बस गए
जब कभी शहरों से आये
तो हिदायत दे गए
पापा आप दूध नहीं पीते क्या ?
अब बूढा उन्हें नहीं बताता
मुझे बताता है
क्यों नहीं पीता वो दूध
सालों से क्यों नहीं पहने नए कपडे ?
लडकियां आतीं है
और मेरी उभरी जड़ों पर बैठ कर
पंचायत करतीं हैं
भाई भाभियों के कर्त्तव्य गिनातीं हैं
और चली जातीं हैं
बूढा फिर सुनीं आंखें लिए मेरे पास आता है
और बिना कुछ कहे
डबडबाई आँखों से सब कुछ कह जाता है
अतीत का भोग हुआ यथार्थ
और भविष्य का ग्रहण लगा सूर्य
उसकी आँखों में उतर आता है
मेरी तरह
उसके पास भी
किसी को देने के लिए कुछ नहीं बचा
वो भी होगया है ठूंठ
और हवा को भी चलना है
वो चली
और ऐसी चली की मेरा सीना चीर गयी
कर्ज से
बूढ़े की रही सही जमीन भी चली गयी
और मैं
सीधा तने रहकर भी
पुख्ता और मजबूती का दंभ भरने वाला
दो फांकों में बटकर जमीन पर बिखर गया
....
सूर्य की लालिमा फुट रही थी
मेरी बिखरी पडी टहनियों के मध्य
वो बूढा भी
सो रहा था
बिना हिले डुले
....
बेहद गहराई लिए बहुत ही भावपूर्ण प्रस्तुति,आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया तुलना की है रचना में |
जवाब देंहटाएंआशा
सूर्य की लालिमा फुट रही थी
जवाब देंहटाएंमेरी बिखरी पडी टहनियों के मध्य
वो बूढा भी
सो रहा था
बिना हिले डुले-------जीवन का एक परिवार का
सच वाकई आज अपना कुछ नहीं,बस करते जाना है
सुंदर रचना बधाई
एक कड़वे समय का सच......जो आखिर निश्चित है.......
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें!
बूढ़े पेड़ और इंसान का तुलनात्मक परिचय ...सोचने को मजबूर करता है
जवाब देंहटाएंमार्मिक अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत कडवी सच्चाई है जिसका सामना हमें अक्सर करना पढ़ जाता है...
सादर
अनु
सुन्दर और भावपूर्ण रचना | जीवन के कटु सत्यों को उजागर करती मार्मिक प्रस्तुति | आभार
जवाब देंहटाएंकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
जवाब देंहटाएंकल दिनांक 01/04/2013 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है .
धन्यवाद!
बहुत सार्थक मर्मस्पर्शी रचना प्रस्तुति ....आभार,,...
जवाब देंहटाएंमनुष्य हो या पेड़ पौधे या पशु पक्षी सभी के जीवन का ऐसे ही अंत... बहुत मार्मिक और संवेदनशील रचना, शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंयही तो विडंबना है चाहे मनुष्य हों ....
जवाब देंहटाएंया फिर वृक्ष हों...
मर्मस्पर्शी रचना....
बेहद गहराई और बहुत बढ़िया तुलना की है रचना में....बहुत बहुत आभार कुश्वंश जी
जवाब देंहटाएंBrunei yurtdışı kargo
जवाब देंहटाएंBrezilya yurtdışı kargo
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