महेश कुशवंश

24 जून 2011

बृहद सन्दर्भ लेती भूंख

भूंख
शब्द छोटा सा है किन्तु
ब्रम्हांड में
बृहद सन्दर्भ लिए
कोई शब्द  इसके समकक्ष  नहीं,
पेट के लिए 
यही दो शब्द 
देश चाक कर देते है, 
और निकाल लेते है  अंतड़ियाँ तक अपनों की , 
तुम्हारी हमसे बड़ी है क्या ?
और इस  बड़ी भूंख का 
कोई छोटा  उत्तर नहीं,
सभी उत्तर बड़े
देश ,जाति और सभ्यता नस्ट करने वाले ,
तुम्हारी हमसे सफ़ेद क्यों?
का कुंठित प्रश्न
काली कर देता  है 
सदियों से पोषित सभ्य संस्कृति,
और हम नहाने लगते है 
कालिख से,कीचड से
और फेकने लगते है इसपर-उसपर,
शरीर की निर्भीक भूंख 
पारदर्शी होने लगती है 
और जलाने लगती है   
दबे छिपे अरमानों की होली 
सरे आम मंच पर,
छद्म जाग्रति  के नाम पर  प्रतिकार स्वरुप
यही  जागरण  
जला देता   है
पूरा  घर, परिवार, समाज
यही क्षणिक भूंख
छीन लेती है ताज और तख़्त भी और
नोंच लेती है चेहरे सरे आम  
बिना पल भर गवाए , 
भाग कर  यही भूंख  बदल लेती है आकार, 
हो  जाती है   अमीबा, 
कागज़ के छोटे-बड़े टुकड़े,
खनकते दुर्लभ धातु  के सिक्के ,
एकत्रित होते ही   
भूंखे    होने लगते है खुश  
जानते हुए भी की
भूंख  ज्यादा हो तो
बदल देती है 
श्वांश लेते  शरीर का आकार 
और बड़ा,और बड़ा
फट जाने की हद तक बड़ा 
फूटते ही  निराकार, निर्जीव   शरीर का फुग्गा  
नहीं रहती  कोई भूख 
काश ! 
हम भूंख   को  सिर्फ पेट तक ही सीमित रहने देते
और भरने देते उद्दयम से 
सबके पेट.

-कुश्वंश  


12 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद सशक्त अभिव्यक्ति…………भूख को बखूबी परिभाषित किया है।

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  2. उसकी शर्ट सफ़ेद खुब, अपनी पीली देख |
    निज रेखा बढ़ न सकी, काटें लम्बी रेख ||

    सशक्त अभिव्यक्ति ||

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  3. इन्सान की बेसिक नीड का वर्तमान परिवेश में आपने सही विश्लेषण किया है ।
    काश कि भूख पेट तक ही सीमित रह पाती तो ये भ्रष्टाचार की सारी लड़ाई ही ख़त्म हो जाती ।

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  4. जिभ्या के बकवाद से, भड़के सारे दाँत |
    मँहगाई हो बेलगाम, छोटी करती आँत ||


    आँखे ताकें रोटियां, जीभी पूछे जात |
    दाँतो में दंगा हुआ, टूटी दायीं पाँत ||

    मतनी कोदौं खाय के, माथा घूमें जोर |
    बेहोशी में जो पड़े, चल उनको झकझोर ||


    हाथों के सन्ताप से, बिगड़ गए शुभ काम |

    मजदूरी भारी पड़ी, पड़े चुकाने दाम ||


    पाँव भटकने लग पड़े, रोजी में भटकाव |
    चले कमाई के लिये, छोड़ के अपने गाँव ||

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  5. शरीर की निर्भीक भूंख
    पारदर्शी होने लगती है
    और जलाने लगती है
    दबे छिपे अरमानों की होली

    अभिनव कल्पना ,अति सुंदर

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  6. भूख छोटा शब्द है और शायद सबसे बड़ा भी.

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  7. बहुत-बहुत स्वागत है महोदय |
    "kuchh kahna hai"

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  8. वह सोचने पर विवश करती कविता...बहुत सुन्दर...आभार...

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  9. बशुत सुन्दर सार्थक अभिव्यक्ति| धन्यवाद|

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  10. बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हुई रचना...

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  11. आदरणीय कुश्वंश जी,
    यथायोग्य अभिवादन् ।

    बस यही तो रोना है..., अहसास ही खाली खूबसूरत होता? और यह अहसास, जिसके आसरे जिंदगी में बना रहता है, वह भी अगर खूबसूरत हो चले तो फिर कहना ही क्या......? जी.... शुक्रिया आपका।

    रविकुमार बाबुल
    ग्वालियर

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आपके आने का धन्यवाद.आपके बेबाक उदगार कलम को शक्ति प्रदान करेंगे.
-कुश्वंश

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