महेश कुशवंश

30 जुलाई 2012

प्यार को छाव में



ले तो आये हो हमें
सपनो के गाव में
प्यार को छाव में
बिठाये रखना
सजना
ओ सजना
सपनों में तेरे तैरते तैरते
सूखी नदी हो गयी
सारी कायनात
और मैं
हाथ में भरते भरते
बालू के कण
न जाने कब से
पानी की आस देखती रही
न जाने कितने रेत  के महल
बने भी
उजड़े भी
न रहा आस पास
कोई  गाँव
न रही सजना की
प्यार की छाव
एक दसक रही अभागी
बड़े, छोटे
अंदरी, बाहरी
नातेदार, आने जानेवाले
सभी के बेरहम ताने
घाव से चिपकते रहे रिश्ते  नाते
जीती रही इस आस में
कभी तो सुबह होगी
और सूरज
मुझे भी रोशनी  छूने देगा
बारिश मेहरबान हुयी
भिगो गयी तन मन
मेरे  रक्त के कतरे
अब और नहीं रिसने देंगे
मेरे जख्मों को
छूकर
सहलाकर
सारी पीड़ा आत्मसात्कर
मुझे
ले जायेंगे
सपनों के गाव
बिछायेंगे प्यार की छाव
घटाओं से झांकता सूरज
रोशनी नहीं छिपा सकता
मुझसे अब और दूर नहीं रह सकती
चांदनी
अब इस उम्मीद के सिवा
और कोई रास्ता भी तो नहीं
शायद अब
शिकायत करने का
न घर बचा
न समय .

-कुश्वंश



14 टिप्‍पणियां:

  1. वाह...
    एक गाने से पूरी रचना का सृजन.....
    सुन्दर!!!

    सादर
    अनु

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  2. बहुत अच्छी भावाव्यक्ति , बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर शब्द चयन और अभिव्यक्ति |
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर भाव... शुभकामनायें

    जवाब देंहटाएं
  5. शायद अब
    शिकायत करने का
    न घर बचा
    न समय ....

    Yes, probably true...

    .

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  6. ानुभूतियों का सुन्दर संसार।

    जवाब देंहटाएं
  7. शिकायत भी करें तो किससे ? सुनने के लिए वक़्त ही कहाँ है किसी के पास .... बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  8. bahut sundar srijan,badhai.
    प्रिय महोदय

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  9. . कविता बढ़िया बनी है... मन को छूती हुई

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  10. . मन को छूती हुई ,सार्थक प्रस्तुति

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  11. प्यार और मनुहार का ये स्वर मनोहारी है

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-कुश्वंश

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